ढुंढता हूँ खुद को ,
कपोल – कल्पना की हसीन दुनियां में ,
चुपके से धीरे -धीरे ,दबें पांव ,
मन के कोने अंतरे ,
सरिक होती है स्मृति -पटल पर ,
आहिस्ता –आहिस्ता ,
स्मृतियों में नया आयाम लाती है ,
तेरी मधुर स्मृतियाँ |
और याद हो आती ,
विरह - मिलन की वो बातें |
वो स्वपनिल सौगातें ,
खिला हुआ तेरा मनमोहक चेहरा ,
छा जाती है इन स्वपनिली आँखों में |
जब से मिले हो तुम ,
अपनी पहचान खो बैठा हूँ |
मुझ में तू ,और तुझ में खुद नजर आता हूँ |
हर -पल , हर –छन ,होता है मेरे साथ तेरी ,
मौजूदगी का हसीन एहसास |
पवन के सनन -सन संग होता है ,
तेरी अनोखी महक का अभास |
यकायक गायब हो जाती है ,
मस्तिष्क से तुम्हारी प्यारी छवी |
एक भयावह खौफ से भर उठता हूँ ,
इस द्वन्द में , कहीं खो न दूँ तुम्हें ...............||
- चन्द्रशेखर प्रसाद